03 मार्च 2019

मीडिया प्रेशर में मालिक व नौकर को बराबर को आरोपी बनाया गया

निठारी कांड के दौरान प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार हैवानियत, नर पिशाच जैसे शब्दों का प्रयोग मालिक व नौकर के लिए प्रयोग किया जा रहा है। मैं भी कर रहा था। कोठी का मालिक अय्याशी के लिए लड़कियों को बुलाता था और मारने के लिए नौकर को देने की खबर चलती थी। एक चैनल पर तो दोनों को तांत्रिक बनाकर दिखाया गया था कि कैसे बच्चों के मांस को भूनकर खाते थे। खैर, कुल मिलाकर मीडिया का जबर्दस्त प्रेशर था। ऐसे में पुलिस अगर पंधेर को केवल इतना नौकर की साजिश में शामिल होने और कोठी में इतनी बड़ी घटना होने के बावजूद लापरवाही बरतने का आरोपी बनाती तो जबर्दस्त विरोध होने के आसार थे। इसलिए आनन-फानन में लखनऊ से ही पुलिस अधिकारियों ने दोनों को एक जैसा ही आरोपी बनाने का आदेश दिया। यह सुनकर जांच टीम के कुछ पुलिसकर्मियों ने किनारा करने की भी सोची। लेकिन उनकी मजबूरी थी। यह बात खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था।
इस बारे में एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि जब कभी इस तरह का प्रेशर होता है कि पुलिस जानते हुए भी निर्दोष को फंसा देती हैं। अगर वह सही है और साक्ष्य उसके खिलाफ नहीं मिलते हैं तो छूट जाएगा। लेकिन गलती वश किसी दोषी को छोड़ दिया तो तुरंत ठीकरा फोड़ दिया जाता है।

नोएडा पुलिस की केस डायरी में लिखा है-

मैं यहां पर नोएडा पुलिस की केस डायरी में आरती मामले से संबंधित नौकर सुरेंद्र कोली के कबूलनामे की रिपोर्ट दे रहा हूं। केस डायरी में लिखी हुई एक-एक लाइन, शब्दश:-

''दिनांक 25 सितंबर 2006 को एक गंजी लड़की आरती को कोठी के सामने से जाते समय इशारा कर अंदर बुलाया और मोनिंदर सिंह के हवाले कर दिया। उसने बुरा काम किया और उसके बेहोश होने पर मुझसे ठिकाने लगाने को कहा। मैने भी उससे बुरा काम किया और उसका गला काटकर सिर एक पन्नी में व धड़ को एक बोरी व प्लास्टिक में भर दिया और रात्रि के समय मौका देखकर सिर को कोठी के पीछे गैलरी में व धड़ को कोठी के सामने नाले में फेंक दिया था

दोनों आरोपियों पर लगाई गई धाराएं (नोएडा पुलिस के रेकॉर्ड से)

आईपीसी की धारा-
302 - हत्या
364 - अपहरण
376 - बलात्कार
201 - सबूत मिटाना
404 - घर में शव को छिपाना
120 बी- साजिश रचना

लापरवाही का आरोप, घर में शव को छिपाने का आरोप बनता है पंधेर पर
घर में हत्या, बलात्कार और शव को छिपाने जैसा अपराध हो रहा हो और मालिक को भनक तक नहीं लगे। ऐसा नहीं हो सकता। शायद ही किसी को इस पर यकीन हो। लेकिन अगर ऐसा तो यह दुनिया की सबसे बड़ी लापरवाही है। इस लापरवाही की सजा भी नौकर से कम नहीं मिलनी चाहिए। इसकी सजा भी फांसी हो। ये बात खुद पुलिस अधिकारी भी स्वीकार करते हैं। लेकिन पंधेर पर मासूम बच्चियों को घर में बुलाने और उनके साथ रेप करने के बाद नौकर को सौंप देने की बात सरासर बेबुनियाद है। इससे भी सभी पुलिस अधिकारी इत्तफाक रखते हैं।

10 जनवरी 2010

निठारी...........

निठारी। अब भी आपके दिलोदिमाग में अच्छे से याद होगा। आगे भी याद रहेगा। क्योंकि अभी इसमें बहुत कुछ होना बाकी है। फैसला आना बाकी है। कई फैसले आ भी चुके हैं। लेकिन अंतिम फैसले का इंतजार हम, आपको ही नहीं देश के बाहर मौजूद लोगों को भी है। आखिर उन दो आरोपियों को क्या सजा मिले। मैं मोनिंदर सिंह पंधेर और सुरेंद्र कोली के लिए आरोपी शब्द का प्रयोग करना ही उचित समझ रहा हूं। यहां पर हैवान, नरपिशाच.... जैसे शब्दों का प्रयोग करना नागवार समझता हूं। माना कि दोनों पर रूह को कंपा देने वाले आरोप हैं। लेकिन वो दोनों भी हम जैसे इंसानों की बस्ती के बीच से ही निकलकर आए हैं। हमारे समाज से तालुक्कात रखते हैं। लिहाजा, कहीं न कहीं, उनके अंदर भी पहले इंसानियत रही होगी। जो बाद में हैवानियत (जैसा कि अब तक इनके लिए प्रयोग किया गया) में बदल गई। खैर, यहां हम आपको यह बताना चाहते हैं कि निठारी को मैने वर्ष 2005 से देखा है। इस केस के परत-दर-परत के बारे में मुझे पता है। जो शायद आम लोगों को नहीं पता है।
अक्सर मैं अपने घर या अन्य किसी जगह जाता हूं तो नोएडा में रिपोर्टिंग करने की जानकारी देते ही लोग बरबस ही पूछ लेते हैं कि आखिर क्या था निठारी कांड। आजकल आरुषि केस के बारे में भी पूछते हैं। आरुषि केस के बारे में भी मैं काफी अनछुए पहलू बताऊंगा लेकिन पहले निठारी।
उन लोगों को कुछ बताने से पहले मैं पूछता हूं कि आपकी नजर में क्या है निठारी कांड। नौकर और मालिक, आखिर आपकी नजरों में कौन है ज्यादा दोषी। अब यही सवाल मैं आपसे भी पूछता हूं। कौन है दोषी? शायद यही जवाब मिलेगा, दोनों। सच भी है। लेकिन पूरी तरह से नहीं। अब आप चौंक गए होंगे। आखिर यह क्या कह रहा है। लेकिन सच यही है। यहां मैं किसी के पक्ष और खिलाफ की बात नहीं कर रहा हूं। बल्कि हकीकत बयां कर रहा हूं। रिपोर्टिंग के दौरान और अब भी जब कभी मैं खबर लिखता हूं तो दोनों के खिलाफ जहर उगलता हूं। क्योंकि अगर ऐसा नहीं करते हैं तो पाठक कहेगा कि पत्रकार भी सरदार मोनिंदर से मिल गया। लेकिन यहां एक लाइन में आपको बता दूं कि वाकई में जब कभी निठारी के डी-5 कोठी में बच्चों का कत्ल हुआ उस दौरान मोनिंदर सिंह विदेश में था। सीबीआई की जांच में यह सच्चाई सामने आई है।
मोनिंदर सिंह की कॉल डिटेल मेरे पास है। जब कभी निठारी में बच्चों के कत्ल हुए उसका मोबाइल फोन लगातार कई दिनों तक बंद रहा है। इस पर मैने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान एक्सक्लूसिव खबर की थी। उसमें लिखा था कि मोनिंदर सिंह पंधेर खास पैर्टन पर बच्चों का कत्ल करता था। वह घटना से एक या दो दिन पहले ही अपना मोबाइल फोन बंद कर लेता था ताकि किसी को उसके बारे में जानकारी नहीं मिले और वह शातिराना तरीके से घटना को अंजाम दे। लेकिन वाकई में उस दौरान मैं गलत था। सच्चाई, सीबीआई ले आई है। और वही हकीकत है। लेकिन हम मीडिया वाले इसे गलत करार देते हैं। क्योंकि इसे आसानी से पचाया नहीं जा सकता है। और आप पचा भी नहीं पाएंगे।

कहां है निठारी....

निठारी। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के सेक्टर-31 के पास निठारी एक छोटा सा गांव है। जो अब से 10 साल पहले जहरीली शराब कांड को लेकर चर्चा में आया था। एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। हालांकि मृतक के परिजनों के जेहन में अब भी वह याद है। लेकिन अन्य लोग यहां तक की मीडिया भी उसे भूल चुकी है। खैर, अब निठारी शब्द जेहन में आते ही खुद-ब-खुद मासूम बच्चों की चीख-पुकार उमड़ आती है। आंखों में एक खौफनाक दृश्य उभरता है। जिसमें एक कोठी के मालिक व नौकर मासूम बच्चों को किसी न किसी बहाने अपने पास बुला लेते हैं। इसके बाद उनके साथ हैवानियत की हदें पार कर देते हैं। बच्चों की हत्या करने के बाद लाश के टुकड़े-टुकड़े कर नाले में बहा देते हैं।

खूनी कोठी

खूनी कोठी नंबर डी-5। भला इसे कौन भूल सकता है। भुलाया भी नहीं जा सकता है। यहां एक या दो नहीं बल्कि 17 बच्चों की दर्दनाक मौत हुई। उनके साथ दुष्कर्म किया गया। इसके बाद गला घोंटकर हत्या कर दी गई। शव के कई टुकड़े किए गए। कुछ हिस्से को कोठी के पीछे तो कुछ को सामने के नाले में बहा दिया गया। यह सिलसिला डेढ़ साल से ज्यादा समय तक चला। लेकिन किसी की नजर इस कोठी पर नहीं पड़ी। इतना जरूर हुआ कि कोठी के पास स्थित पानी की एक टंकी के आसपास से बच्चों को गायब होने का शक जरूर हुआ। गांव वालों ने यहां तक मान लिया कि पानी टंकी के पास कोई भूत रहता है जो बच्चों को निगल जाता है। या फिर पानी टंकी के पास से ही कोई बच्चों को गायब करने वाला गिरोह सक्रिय है।
इस कोठी में मोनिंदर सिंह पंधेर रहता था। यह शख्स आईएएस की तैयारी भी कर चुका है। रिटेन एग्जाम निकाल इंटरव्यू देने की बात अब तक सामने आ पाई है। लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। इस शख्स की करोड़ों की प्रॉपर्टी है। वह जेसीबी मशीनों की सप्लाई करने वाली कंपनी में बतौर सीनियर अधिकारी था। इसकी गिनती शहर के रईसजादों में होती रही है। इसने वर्ष 2005 में सेक्टर-31 डी-5 नंबर की कोठी खरीद ली थी। वजह थी, घर परिवार चंडीगढ़ में होने की वजह से नोएडा में रहने का ठिकाना। क्योंकि नोएडा में ही उसकी कंपनी थी।
अब नोएडा में परिवार नहीं होने की वजह से मोनिंदर सिंह पंधेर को एक नौकर की तलाश थी। इसलिए चंडीगढ़ में नौकरी कर चुके सुरेंद्र कोली को नोएडा बुला लिया। दरअसल, सुरेंद्र खाना बनाने में एक्सपर्ट था। खासतौर पर नॉनवेज बनाने में। इसलिए मोनिंदर सिंह ने उसे नोएडा अपने साथ रख लिया। वह कोठी में ही छत पर बने एक कमरे में रहने लगा। लेकिन महीने में अधिकतर दिन मोनिंदर सिंह पंधेर कहीं न कहीं टूर पर ही रहता था। लिहाजा, कोठी के मालिक की तरह सुरेंद्र ही रहता था।

एक कॉलगर्ल की नजर में पंधेर

मोनिंदर सिंह पंधेर कई कॉलगल्र्स के संपर्क में था। अब आप जरूर सोच रहे होंगे कि मुझे कैसे पता। तो मैं बता दूं कि मेरे पास पंधेर के मोबाइल फोन नंबर 9810098644 की 1 जुलाई 2006 से 30 दिसंबर 2006 तक की कॉल डिटेल है। इसका मैंने कई दिनों तक लगातार अध्ययन किया। उसमें से मैने कई नंबरों को शार्ट लिस्टेड किया। उन नंबरों पर कॉल किया। इनमें से कई नंबर कॉलगर्ल के निकलें। लेकिन किसी ने अपनी असलियत बताना मुनासिब नहीं समझा। अचानक एक खास नंबर लगातार आउटगोइंग कॉल पर नजर टिकी। मैने कॉल किया। जवाब मिला 'हैलो, हू आर यूÓ। मैने कहा ' एम आकाश, फ्राम क्राइम इंवेस्टिगेशन टीम। आपका नंबर पंधेर की कॉल डिटेल में है। कई बार आपकी बातचीत हुई है। इसकी वजह। कैसे जानती हैं आप उसे।Ó इस तरह सवालों का लंबा-चौड़ा जाल फेंक डाला। ताकी सामने वाले को मेरी असलियत का पता ही न चले। अक्सर खबरों की खबर निकालने के लिए मैं ऐसी हरकत कर लेता हूं। जब कोई आसानी से मीडिया वाले को जवाब नहीं देता था। ऐसा करना मजबूरी भी हो जाती थी।
जवाब मिला ' हां, जानती हूं। मैने पूछा आपका नाम। जवाब दिया कि आप लोग कई बार पूछ चुके हैं। फिर क्यों? आखिर आप कौन हैं। मैं सब कुछ बताऊंगी लेकिन पहले आप सचाई बताएं। मुझे लगा ये औरों से अलग है। अंदाजा सही भी निकला। उसने अपना नाम क्रिस्टी बताया। नार्थ इंडिया की रहने वाली हूं। और आप, अभी तक नहीं बताया आपने।
उसकी ईमानदारी जानकर मैने भी अपनी असलियत उजागर कर दी। बता दिया मीडिया वाला हूं। वह थोड़ा हिचकिचाई। लेकिन थोड़ी देर बाद खुल गई। टूटी फूटी हिंदी बोलती थी। लेकिन सच बोलती थी। क्राइम कवर करता रहा हूं, तो इतना अंदाजा लगा लिया। मैने पूछा कि किस तरह की शख्सियत है पंधेर। सबसे पहले जवाब मिला कि आप लोग 'उनकेÓ बारे में गलत लिखते हैं। नर पिशाच, हैवान.... ऐसे नहीं हैं वो। दिल के बहुत अच्छे हैं। खुशमिजाज इंसान हैं। सभी तरह से खुश रखते हैं। मुझे कई बार सूरजकुंड मेले में घुमाने भी ले जा चुके हैं। उनके साथ टूर पर देहरादून भी जा चुके हैं। मैने उनके साथ काफी हसीन पल गुजारे हैं। हर पल मुझे याद है। जब कभी वह टेंशन में होते थे मुझे याद करते थे। हम भी इसका इंतजार रहता था। कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके दिल में प्यार के साथ हैवान भी छिपा है। ऐसा है भी नहीं। इतना करीब से जो देखा है। बच्चों से वह बहुत प्यार करते थे। इसका अहसास भी मुझे है। बच्चों के साथ कभी भी वह इस तरह हैवान नहीं बन सकते। इतना दावे के साथ कह सकती हूं। क्योंकि इतने रुपये हैं उनके पास जब चाहे उसे घर पर बुला सकते थे। इसलिए गरीब बच्चों के साथ हैवान बनना, कभी नहीं हो सकता। सपने में भी नहीं।
मैने पूछा कि कोठी में कितनी बार गई और क्या महसूस किया? जवाब मिला, कई बार गई। अक्सर जाती रहती थी। जब कभी वह बुलाते थे। कोठी में थोड़ा अजीब लगता था। लेकिन उनके होने पर महसूस नहीं होता था। लेकिन नौकर बहुत अजीबोगरीब नजरों से देखता था। उससे डर जरूर लगता था। उसकी हरकतें भी अजीब थी। इसलिए वह शराब और खाने का सामान पहुंचाकर चला जाता था। फिर वह पंधेर पर आ जाती है। कहती है लेकिन वह दिल के बड़े अच्छे थे। अपनी इच्छाओं को जताते थे। उसने यहां तक बताया था कि मैं कोर्ट में भी जाऊंगी और पूरी बात बताऊंगी। सीबीआई के कहने पर वह गाजियाबाद सीबीआई कोर्ट में गई थी। मशहूर फिल्म देवदास का डायलॉग है कि 'तवायफ के पास भी दिल होता हैÓ। इससे पता चला कि माधुरी दीक्षित की रील लाइफ की तरह क्रिस्टी की रीयल लाइफ में पंधेर के रूप में एक देवदास था। जो शराब पीकर तो नहीं, जेल में अब आखिर की जिंदगी गुजार रहा है।

29 दिसंबर 2006 का वो दिन......

सुबह करीब 9 बज रहे थे। अच्छी खासी ठंड थी। इत्तफाक से उस दिन मैं जल्दी ही घर से बाइक लेकर नोएडा आ गया। शायद कोई प्रेस कॉंफ्रेंस होने वाली थी। टेलिफोन एक्सचेंज चौराहे पर पहुंचा था तभी मोबाइल फोन की घंटी बजी। जवाब मिला, निठारी से सतीश चंद्र मिश्रा बोल रहा हूं। पानी टंकी के पास कंकाल मिल रहे हैं। इतना सुनते ही मैं समझ गया कि गायब हो रहे बच्चों से जुड़ा मामला है। बाइक की रफ्तार अपने आप तेज हो गई। वहां से महज 5 से 10 मिनट में निठारी पहुंच गया। देखा लोगों की भारी भीड़ थी। पानी टंकी के पास यानी डी-5 कोठी के पीछे खुदाई चल रही थी। एक कंकाल, फिर दूसरा, तीसरा.... फिर...लगातार। कुछ देर में एक न्यूज चैनल वाले पहुंचे। उन्होंने खबर ब्रेक की। इसके बाद हलचल मच गया। चैनलों पर खबर देख निठारी से हजारों की संख्या में लोग इक्ट्ठा हो गए। उस समय तक इक्का-दुक्का पुलिसकर्मी मौजूद थे। लेकिन भीड़ देख नोएडा के अधिकतर थानों की पुलिस फोर्स जुट गई।
लोगों की चीख पुकार उमड़ पड़ी। निठारी ही नहीं, नोएडा के आसपास के जिलों से लापता हुए बच्चों के माता-पिता भी निठारी पहुंचे। चैनल के मीडियाकर्मियों में उत्सुकता बढ़ गई थी। जहां-तहां कैमरे तन गए। हर कोई एक्सक्लूसिव करना चाहता था। कोई कोठी के भीतर घुस जाता तो कोई छत पर। हर जगह मीडियाकर्मियों की भरमार। खुलासा हुआ कि निठारी से पिछले कई सालों से गायब हो रहे बच्चों को इस कोठी में मार दिया गया। मीडिया के सवाल लापता हुए बच्चों के मां-बाप के सीने में जहरीले तीर की तरह चुभते थे। उनका गुस्सा और भड़कता था। फिर भी सवाल की रफ्तार कम नहीं होती थी। सवाल पर सवाल। आखिर कैसे हुआ आपका बच्चा गायब। क्या लगता है आपको। कैसे मार दिया गया। पुलिस ने आपकी सुनी की नहीं। क्यों अनसुना कर दिया। आपके बच्चे का भी कंकाल मिला? यह सुनकर बच्चों के मां-बाप का गुस्सा भड़क जाता था। पुलिस को गालियां बकते थे। ज्यादा गुस्सा आया तो किसी पुलिस वालों की वर्दी पकड़ ली। सभी कैमरों की नजर वहीं टिक जाती थी।
जैसे-जैसे समय बीतता गया। पुलिस की वर्दी पर थू-थू होने लगी। पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगने लगे। पुलिसवालों को मार डालों। हाथों में चूडिय़ां पहना दो। कोठी में आग लगा दो......वगैरा वगैरा। पुलिस के हाथों में डंडा था, लेकिन वह खुद पीट जाते थे। सामने से गालियां पड़ती थी, पर उसे अनसुना करने में ही भलाई थी। करते भी क्या, कैमरे की नजर जो हर जगह थी। दोपहर हो गया। प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लगभग अधिकतर रिपोर्टरों को निठारी बुला लिया गया। सबसे कहा गया, कुछ स्पेशल करने के लिए। किया भी सभी ने। यही हाल कैमरे वालों का। ज्यादा से ज्यादा मार्मिक और गुस्से वाला फोटो खींचों। आखिरकार, शाम आ गई। हम अखबार वालों को आखिरकार लौटना पड़ा ऑफिस।
कुछ भी नहीं समझ में आ रहा था कि आखिर खबर की शुरुआत कहां से की जाए। मार्मिक या फिर पुलिसकर्मियों की लापरवाही से। इसी में डेस्क पर कार्य करने वाले लोगों के सवालों का जवाब भी देना पड़ता। कैसे हो गया, क्यों हुआ, क्या किसी को भनक नहीं लगी, पुलिस सोती रही, पड़ोसियों को पक्का पता होगा, कितने बच्चे मारे गए, .........। अब एक सवाल का जवाब दो। तो उसमें भी कई सवाल। अब खबर लिखें या जवाब दें। खैर, खबर लिखी गई। एक नहीं, दर्जनों एंगल से। लेकिन हमेशा उत्सुकता होती कि आखिर कोठी के पास क्या हो रहा है। सभी साथी रिपोर्टरों ने भी खबर लिखी। सभी बच्चों के फाइल फोटो जुटाए गए। यह पता लगाया कि आखिर कितने लोग कोठी के शिकार हुए। फाइनल हुआ एक दर्जन से ज्यादा बच्चे। लेकिन पूरी तरह से पुष्टि नहीं हुई। एक ही पुष्टि हुई। वह थी 21 वर्षीय दीपिका उर्फ पायल। दरअसल, इसके लापता होने के बाद पायल का मोबाइल फोन सुरेंद्र कोली ने यूज किया था। पुलिस को शक था कि डी-5 में रहने वाले नौकर सुरेंद्र कोली ने ही उसे गायब करा दिया है। काफी कड़ाई से पूछताछ के बाद उसने केवल पायल की हत्या की बात कबूल की थी। इसलिए पुलिस को और बच्चों के गायब होने और बाद में कोठी में मार डालने की भनक नहीं लगी थी। लेकिन पायल का शव बरामद करने के लिए कोठी के पीछे पहुंची तो वहां कई कंकाल देखकर सभी लोग दंग रह गए। इसके बाद परत-दर-परत खुलती गई। धीरे-धीरे कर नौकर सुरेंद्र कोली ने बच्चों को किसी न किसी बहाने कोठी में बुलाकर उनकी हत्या, रेप करना और फिर शव को ठिकाने लगाने की बात कबूल कर ली। देर रात तक आधे दर्जन बच्चों को मारे जाने की पुलिस अधिकारियों ने पुष्टि की।


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फुटपाथ पर बैठकर मना नया साल

हर साल की तरह वर्ष 2007 मनाने की भी सभी की तैयारी थी। मेरे कुछ साथी लोगों ने मनाली तो कोई हरिद्वार तो कहीं....और जाने के लिए टूर प्लान भी बना लिया था। तैयारी भी हो गई थी। ऑफिस से छुट्टी भी मिल गई थी। लेकिन निठारी में दो दिनों के माहौल और अंतर्राष्ट्रीय खबर बनते देख सभी की छुट्टी कैंसल कर दी गई। तमाम मीडिया कर्मी सुबह 7 बजे से ही कोठी के आसपास जुटने लगे थे। हमलोगों और तमाम पुलिस फोर्स को देख वहां चाय की कई दुकानें भी टेंपररी खुल गई थी। दुकान भी अच्छी चलती थी। क्योंकि एक तो सुबह बिना कुछ खाए-पीए निठारी चले आते थे। यहां आने के बाद कब समय निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था। इसलिए चाय के साथ बिस्किट भी मिल जाए, तो थोड़ी पेट पूजा हो जाती थी। आखिरकार, पहली जनवरी को भी हमलोग ऐसे ही मिले। हमलोग एक दूसरे को बधाई भी देते थे। लेकिन चेहरे से नहीं दिखाते थे। क्योंकि पास में रोने-धोने की आवाजें आती थी। कोई अपने बच्चे की फोटो लिए हमलोग के पास पहुंच आता था। कहता था कि मेरे भी बच्चों को ढुढ़वा दो। हमलोग भी उसकी पीड़ा में शामिल हो जाते थे। तुरंत फोटो कराते थे। नाम और बच्चे की उम्र पूछते थे।
अगर दो या तीन लोग उससे पूछते थे तभी पीछे से दर्जनों मीडियाकर्मियों की भीड़ जुट जाती थी। इसलिए कि कहीं, इन लोगों के पास कोई एक्सट्रा जानकारी न हो जाए। इस तरह पीडि़तों की हर खबर हर जगह, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, सभी में आ जाती थी। अब ये बात अलग है कि उनके बच्चे के बारे में कुछ पता चला या नहीं, इस पर कोई गंभीरता से नहीं सोचता था। सोचता भी कैसे, हर रोज एक नई कहानी सामने आती थी। हर रोज, नए चेहरे दिखते थे। उनसे ही फुर्सत नहीं मिलती थी। तो पहले के मामलों का क्या हुआ, कहां से पता करते। खैर, इसी तरह चाय की चुस्की लेते हुए नए साल का पहला दिन गुजर गया। अहसास ही नहीं हुआ कि नया साल भी था। जैसे इस साल हुआ। या फिर पिछले साल हुआ।

...तो इस तरह शुरू हुआ बच्चों के गायब होने का सिलसिला

अब से करीब पांच साल पहले 20 जून 2005 की दोपहर की बात है। आठ साल की बच्ची ज्योति खेलने के लिए निठारी के पानी टंकी के पास गई। लेकिन वह दोबारा घर नहीं लौटी। इससे पहले भी दो मासूम बच्चियां पानी टंकी के पास से ही गायब हुईं थी। ज्योति के पिता झब्बू व अन्य परिजनों ने उसकी बहुत तलाश की। लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। इसके कुछ दिनों बाद ही छह साल का हर्ष भी पानी टंकी के पास से गायब हो गया। ज्योति की तरह हर्ष का भी कुछ पता नहीं चला। इस तरह लगातार डेढ़ साल तक यह सिलसिला चलता रहा। एक के बाद बच्चे गायब होते रहे। लोग अपने बच्चों को पानी टंकी के पास भेजने से डरने लगे क्योंकि यहीं से बच्चे गायब हो जाते थे। पुलिस भी पहले इसे महज इत्तेफाक समझती रही। लेकिन जब एक दर्जन से ज्यादा बच्चे गायब हुए तो पुलिस को इसके पीछे कुछ गहरी साजिश नजर आई। पुलिस टीम को इसके पीछे बच्चों को गायब कर उन्हें देह व्यापार के धंधे में धकेलने वाले बेडिय़ा गिरोह पर शक हुआ। पुलिस की अलग-अलग टीमों ने एनसीआर के अलावा, मुंबई, आगरा, बिहार के कई जिलों समेत देश भर में जगह-जगह चक्कर लगाए। लेकिन कोई खास सुराग नहीं मिला। मिलता भी कैसे। पुलिस देश भर में चक्कर लगाती रही जबकि सुराग निठारी में मौजूद था।

लापता बच्चों का किसी भी तरह से नहीं मिल रहा था सुराग

निठारी केस की जांच में नोएडा पुलिस के सभी सीनियर अधिकारी से लेकर कई सब इंस्पेक्टर जुटे हुए थे। अधिकारी गाइड करते थे। लेकिन फील्ड वर्क सब इंस्पेक्टर करते थे। जगह-जगह घूमना और पूछताछ करने की जिम्मेदारी दो स्टार लगाने वालों के कंधों पर थी। इस केस की जांच में पुलिस ने बहुत मेहनत की। लेकिन लापरवाही भी पग-पग पर हुई। छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करना, नोएडा पुलिस की फितरत थी। रही है और लगता है आगे भी रहेगी। जबकि क्राइम के हर केस में सभी छोटी चीज काफी महत्वपूर्ण होती है। खैर, लापरवाही तो बहुत हुई। उसकी चर्चा बाद में। पहले, जांच अधिकारियों की बात।
इस केस की सबसे ज्यादा देर तक जांच की सब इंस्पेक्टर विनोद पांडे ने। निठारी से लगातार गायब हो रहे बच्चों की जांच करने वाली टीम कई बार बदली थी। लेकिन कुछ कॉमन रहा था तो वह है टीम में एसआई विनोद पांडे का होना। विनोद पांडे बताते हैं कि निठारी से गायब हुए बच्चों में ज्यादातर लड़कियां थी। इसलिए शक हुआ कि नोएडा में ऐसा गिरोह सक्रिय है जो बच्चियों को बहला फुसला कर उन्हें बेच दे रहा है या फिर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल रहा है। क्योंकि इस तरह के देश-विदेश में कई मामले सामने आ चुके थे। लिहाजा, जांच की दिशा भी इसी के इर्द-गिर्द थी। यही वजह है कि मामला तूल पकडऩे पर गायब बच्चों के परिजनों को लेकर आगरा, बिहार, हरियाणा, राजस्थान से लेकर मुंबई तक के चक्कर लगाए गए। लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। परिजनों को जवाब नहीं दे पाते थे। आखिर क्या हुआ बच्चों के साथ। जमीन खा गई या आसमां निगल गया। इसके बावजूद जांच जारी रही।

मीडिया प्रेशर में मालिक व नौकर को बराबर को आरोपी बनाया गया

निठारी कांड के दौरान प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार हैवानियत, नर पिशाच जैसे शब्दों का प्रयोग मालिक व नौकर के लिए प्रयोग किया जा रह...