10 जनवरी 2010

29 दिसंबर 2006 का वो दिन......

सुबह करीब 9 बज रहे थे। अच्छी खासी ठंड थी। इत्तफाक से उस दिन मैं जल्दी ही घर से बाइक लेकर नोएडा आ गया। शायद कोई प्रेस कॉंफ्रेंस होने वाली थी। टेलिफोन एक्सचेंज चौराहे पर पहुंचा था तभी मोबाइल फोन की घंटी बजी। जवाब मिला, निठारी से सतीश चंद्र मिश्रा बोल रहा हूं। पानी टंकी के पास कंकाल मिल रहे हैं। इतना सुनते ही मैं समझ गया कि गायब हो रहे बच्चों से जुड़ा मामला है। बाइक की रफ्तार अपने आप तेज हो गई। वहां से महज 5 से 10 मिनट में निठारी पहुंच गया। देखा लोगों की भारी भीड़ थी। पानी टंकी के पास यानी डी-5 कोठी के पीछे खुदाई चल रही थी। एक कंकाल, फिर दूसरा, तीसरा.... फिर...लगातार। कुछ देर में एक न्यूज चैनल वाले पहुंचे। उन्होंने खबर ब्रेक की। इसके बाद हलचल मच गया। चैनलों पर खबर देख निठारी से हजारों की संख्या में लोग इक्ट्ठा हो गए। उस समय तक इक्का-दुक्का पुलिसकर्मी मौजूद थे। लेकिन भीड़ देख नोएडा के अधिकतर थानों की पुलिस फोर्स जुट गई।
लोगों की चीख पुकार उमड़ पड़ी। निठारी ही नहीं, नोएडा के आसपास के जिलों से लापता हुए बच्चों के माता-पिता भी निठारी पहुंचे। चैनल के मीडियाकर्मियों में उत्सुकता बढ़ गई थी। जहां-तहां कैमरे तन गए। हर कोई एक्सक्लूसिव करना चाहता था। कोई कोठी के भीतर घुस जाता तो कोई छत पर। हर जगह मीडियाकर्मियों की भरमार। खुलासा हुआ कि निठारी से पिछले कई सालों से गायब हो रहे बच्चों को इस कोठी में मार दिया गया। मीडिया के सवाल लापता हुए बच्चों के मां-बाप के सीने में जहरीले तीर की तरह चुभते थे। उनका गुस्सा और भड़कता था। फिर भी सवाल की रफ्तार कम नहीं होती थी। सवाल पर सवाल। आखिर कैसे हुआ आपका बच्चा गायब। क्या लगता है आपको। कैसे मार दिया गया। पुलिस ने आपकी सुनी की नहीं। क्यों अनसुना कर दिया। आपके बच्चे का भी कंकाल मिला? यह सुनकर बच्चों के मां-बाप का गुस्सा भड़क जाता था। पुलिस को गालियां बकते थे। ज्यादा गुस्सा आया तो किसी पुलिस वालों की वर्दी पकड़ ली। सभी कैमरों की नजर वहीं टिक जाती थी।
जैसे-जैसे समय बीतता गया। पुलिस की वर्दी पर थू-थू होने लगी। पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगने लगे। पुलिसवालों को मार डालों। हाथों में चूडिय़ां पहना दो। कोठी में आग लगा दो......वगैरा वगैरा। पुलिस के हाथों में डंडा था, लेकिन वह खुद पीट जाते थे। सामने से गालियां पड़ती थी, पर उसे अनसुना करने में ही भलाई थी। करते भी क्या, कैमरे की नजर जो हर जगह थी। दोपहर हो गया। प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लगभग अधिकतर रिपोर्टरों को निठारी बुला लिया गया। सबसे कहा गया, कुछ स्पेशल करने के लिए। किया भी सभी ने। यही हाल कैमरे वालों का। ज्यादा से ज्यादा मार्मिक और गुस्से वाला फोटो खींचों। आखिरकार, शाम आ गई। हम अखबार वालों को आखिरकार लौटना पड़ा ऑफिस।
कुछ भी नहीं समझ में आ रहा था कि आखिर खबर की शुरुआत कहां से की जाए। मार्मिक या फिर पुलिसकर्मियों की लापरवाही से। इसी में डेस्क पर कार्य करने वाले लोगों के सवालों का जवाब भी देना पड़ता। कैसे हो गया, क्यों हुआ, क्या किसी को भनक नहीं लगी, पुलिस सोती रही, पड़ोसियों को पक्का पता होगा, कितने बच्चे मारे गए, .........। अब एक सवाल का जवाब दो। तो उसमें भी कई सवाल। अब खबर लिखें या जवाब दें। खैर, खबर लिखी गई। एक नहीं, दर्जनों एंगल से। लेकिन हमेशा उत्सुकता होती कि आखिर कोठी के पास क्या हो रहा है। सभी साथी रिपोर्टरों ने भी खबर लिखी। सभी बच्चों के फाइल फोटो जुटाए गए। यह पता लगाया कि आखिर कितने लोग कोठी के शिकार हुए। फाइनल हुआ एक दर्जन से ज्यादा बच्चे। लेकिन पूरी तरह से पुष्टि नहीं हुई। एक ही पुष्टि हुई। वह थी 21 वर्षीय दीपिका उर्फ पायल। दरअसल, इसके लापता होने के बाद पायल का मोबाइल फोन सुरेंद्र कोली ने यूज किया था। पुलिस को शक था कि डी-5 में रहने वाले नौकर सुरेंद्र कोली ने ही उसे गायब करा दिया है। काफी कड़ाई से पूछताछ के बाद उसने केवल पायल की हत्या की बात कबूल की थी। इसलिए पुलिस को और बच्चों के गायब होने और बाद में कोठी में मार डालने की भनक नहीं लगी थी। लेकिन पायल का शव बरामद करने के लिए कोठी के पीछे पहुंची तो वहां कई कंकाल देखकर सभी लोग दंग रह गए। इसके बाद परत-दर-परत खुलती गई। धीरे-धीरे कर नौकर सुरेंद्र कोली ने बच्चों को किसी न किसी बहाने कोठी में बुलाकर उनकी हत्या, रेप करना और फिर शव को ठिकाने लगाने की बात कबूल कर ली। देर रात तक आधे दर्जन बच्चों को मारे जाने की पुलिस अधिकारियों ने पुष्टि की।


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फुटपाथ पर बैठकर मना नया साल

हर साल की तरह वर्ष 2007 मनाने की भी सभी की तैयारी थी। मेरे कुछ साथी लोगों ने मनाली तो कोई हरिद्वार तो कहीं....और जाने के लिए टूर प्लान भी बना लिया था। तैयारी भी हो गई थी। ऑफिस से छुट्टी भी मिल गई थी। लेकिन निठारी में दो दिनों के माहौल और अंतर्राष्ट्रीय खबर बनते देख सभी की छुट्टी कैंसल कर दी गई। तमाम मीडिया कर्मी सुबह 7 बजे से ही कोठी के आसपास जुटने लगे थे। हमलोगों और तमाम पुलिस फोर्स को देख वहां चाय की कई दुकानें भी टेंपररी खुल गई थी। दुकान भी अच्छी चलती थी। क्योंकि एक तो सुबह बिना कुछ खाए-पीए निठारी चले आते थे। यहां आने के बाद कब समय निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था। इसलिए चाय के साथ बिस्किट भी मिल जाए, तो थोड़ी पेट पूजा हो जाती थी। आखिरकार, पहली जनवरी को भी हमलोग ऐसे ही मिले। हमलोग एक दूसरे को बधाई भी देते थे। लेकिन चेहरे से नहीं दिखाते थे। क्योंकि पास में रोने-धोने की आवाजें आती थी। कोई अपने बच्चे की फोटो लिए हमलोग के पास पहुंच आता था। कहता था कि मेरे भी बच्चों को ढुढ़वा दो। हमलोग भी उसकी पीड़ा में शामिल हो जाते थे। तुरंत फोटो कराते थे। नाम और बच्चे की उम्र पूछते थे।
अगर दो या तीन लोग उससे पूछते थे तभी पीछे से दर्जनों मीडियाकर्मियों की भीड़ जुट जाती थी। इसलिए कि कहीं, इन लोगों के पास कोई एक्सट्रा जानकारी न हो जाए। इस तरह पीडि़तों की हर खबर हर जगह, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, सभी में आ जाती थी। अब ये बात अलग है कि उनके बच्चे के बारे में कुछ पता चला या नहीं, इस पर कोई गंभीरता से नहीं सोचता था। सोचता भी कैसे, हर रोज एक नई कहानी सामने आती थी। हर रोज, नए चेहरे दिखते थे। उनसे ही फुर्सत नहीं मिलती थी। तो पहले के मामलों का क्या हुआ, कहां से पता करते। खैर, इसी तरह चाय की चुस्की लेते हुए नए साल का पहला दिन गुजर गया। अहसास ही नहीं हुआ कि नया साल भी था। जैसे इस साल हुआ। या फिर पिछले साल हुआ।

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